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पुस्तक का संक्षिप्त परिचय
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समाधान (पुस्तक का अंतिम पृष्ठ)
अनुकूलन
अर्थात आपको जिस सांचे में ढाला गया आपने बिना जाने, समझे व जांचे उसको ही सत्य व संपूर्ण मानकर स्वयं को ढाल लिया या ढल गए स्वयं को सांचे में ढालने के बाद दूसरों को भी उस सांचे मे ढालने के लिए सांचे में ढलने की प्रक्रिया का वाहक बन गए।
हम ढाले जाते हैं या ढल जाते हैं और दूसरों को ढालने लगते हैं और यह ढलना स्वतः चालित प्रक्रिया का रूप ले लेता है। स्वतः चालित प्रक्रिया से सांचे में ढलना ही अनुकूलन है। अनुकूलन जीवन के प्रत्येक विषय पर विभिन्न स्तरों पर लागू होता है। अनुकूलन वैचारिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, जीवन-मूल्य, शारीरिक, चेतना, भाव, मान्यतायें, समझ, अनुभव आदि किसी भी प्रकार का हो सकता है।
यदि हमें जीवन, प्रकृति, अस्तित्व, ईश्वर, जीवन-मूल्य, भाव व सत्य आदि को उसके यथार्थ के साथ समझने की ईमानदार चेष्टा करनी है, तो हमे स्वयम् को मानव-निर्मित मान्यताओं, तथ्यों, तंत्रों, धर्मों, ईश्वर, सत्य, जीवन-मूल्य व भाव आदि के जंजाल से बाहर निकलना होता है। अनुकूलन से बाहर निकलने की यह ईमानदार चेष्टा ही 'अननकूलन' होती है।
मनुष्य की चेतना " क्रियाशीलता, गौरवशालिता व आत्म-साक्षात्कार " आदि को सहजता, प्रमाणिकता व जीवंतता के साथ जीना चाहती है। मनुष्य की चेतना की क्रियाशीलता व चाहना कुछ और होती है। किंतु मनुष्य पारंपरिक अनुकूलता के बनाए भ्रमों व अनुकूलता को ही ज्ञान व सत्य मानकर प्रपंचों में जीता रहता है। प्रपंचो, छद्मों व अनुकूलिता को ही जीने में खुद के जीवन की श्रेष्ठता, सार्थकता व उद्देश्य देखता है और खुद में गौरवाशाली होने के छद्म को जीता है। इसीलिये मनुष्य अपने जीवन में बौद्धिक, भावनात्मक, धार्मिक, वैचारिक, आर्थिक व शारीरिक आदि विभिन्न स्तरों पर सैडिज्म को जीता है, और हिंसक तरीके से जीता है।
परंपरा में हिंसक व लोभी लोगों ने विभिन्न प्रकार की सत्ताओं को निर्मित किया और अपनी सत्तायें सुनिश्चित करने के लिए, मनुष्य को सरलता से उत्प्रेरित करने वाले तत्वों जैसे शारीरिक सुरक्षा, सेक्स के लिए शरीर की उपलब्धता, भविष्य की सुरक्षा के लिए संग्रह लोभ, पुरुषार्थ से भागना, हिंसा व दूसरों को हीन मानना आदि को पहले मानव प्रकृति की आवश्यकता फिर श्रेष्ठता शक्ति-सत्ता के रूप में परंपरा में स्थापित करके; मनुष्य व समाज को बहुत ही दृढ़ता से अनुकूलित कर दिया।
दर्शन बिना कर्म के नहीं आता और कर्म बिना अननकूलन के नहीं होता
मनुष्य को जीवन दर्शन व कर्म को समझने के लिए बस यही पंक्ति ही पर्याप्त है। यदि मनुष्य परंपरा में स्थापित विभिन्न प्रकार की व विभिन्न स्तरों की अनुकूलिता से बाहर आकर सहज हो जाए तो वह परपीड़ासक्ति व हिंसा आदि ऋणात्मकताओं से स्वतः बाहर आने लगता है। समाधान की ओर गति करने का यही एकमात्र तरीका होता है। लेकिन मनुष्य है कि मोटी मोटी धार्मिक पोथियां रटता रहता है। अतथ्यात्मक तर्क वितर्क करते हुए मनचाहे विश्लेषणों से सत्य, ब्रम्ह व ईश्वर को खोजता रहता है। स्वयं भी भ्रमित होता है, दूसरों को भी भ्रमित करता है। लेकिन स्व-श्रेष्ठता के अहंकार की जिद में खुद का भ्रम स्वीकारने को तैयार भी नहीं होता है। यह भी एक बड़ा मूलभूत कारण है, भारतीय सभ्यता में पारंपरिक रूप से "कर्मशीलता" के प्रति उपेक्षा व तिरस्कार रहने का।
यह पुस्तक उन लोगों के लिए बहुत कुछ लिए हुए है, जो लोग भारतीय समाज के विकास व समाधान के लिएईमानदार सोच व प्रतिबद्धता रखते हैं; साथ ही यह विश्वास करते हैं कि देश व समाज का निर्माण मनुष्य ही करता है और समाज निर्माण की अपने हिस्से के उत्तरदायित्व व प्रतिबद्धता को जीवंत रूप में जीकर साकार करना चाहते हैं।
यह पुस्तक मुख्यतः मनुष्य की कर्मशीलता पर आधारित सामाजिक समाधान के प्रति प्रयासों व क्रियाशीलता और अननकूलता पर केंद्रित है। यह पुस्तक दृढ़ता से विश्वास करती है कि परिवार, समाज, देश, परंपराएं, जीवन मूल्य व मानव-निर्मित-ईश्वर आदि किसी पराप्राकृतिक शक्ति अथवा वास्तविक ईश्वर द्वारा नहीं बनाए गए हैं; इसलिए मानव समाज को बने बनाए नहीं प्राप्त हुए हैं, वरन् मनुष्य ने परिवार, समाज व देश आदि का क्रमिक निर्माण किया।
इस पुस्तक का लेखक सक्रिय यायावर है जिसने कि भारत के हजारों गावों को असंगठित तरीके से पदयात्रा करते हुए देखने समझने की चेष्टा की है और लगभग दो दशक से भारतीय समाज के आर्थिक, सामाजिक व चेतनशील विकास के लिए हजारों परिवारों के लिए धरातल पर काम करता आया है। इस बात पर विश्वास करता है कि परिवार, समाज व देश; वास्तविक ईश्वर द्वारा रचित सहज प्राकृतिक तत्व न होकर, मनुष्य द्वारा निर्मित कृत्रिम तंत्र हैं। पुस्तक में लेखक सामाजिक समाधान, विकास व चेतनशीलता के लिए मानव-निर्मित-ईश्वर के अवतार या हस्तक्षेप के द्वारा बने बनाए समाधान की कल्पना व अपेक्षा करने के स्थान पर मनुष्य व समाज के प्रयासो की कर्मशीलता की चर्चा करता है।
धार्मिक तंत्र, राजनैतिक तंत्र व आर्थिक तंत्र आदि, मनुष्य द्वारा निर्मित समाज व देश के तंत्रगत-अवयव होते हैं; जिन्हें प्रासांगिकतानुसार परिवर्तित किया जा सकता है। मनुष्य परिवार, समाज व देश निर्माण की प्रक्रिया में विभिन्न अवयवों व तंत्रों का निर्माण करता है, आवश्यकतानुसार उन्हें परिवर्तित करता रहता है। अवयवों व तंत्रों के निर्माण व परिवर्तन की प्रक्रिया में वह सीखता है और सीखते हुए क्रमिक रूप से बेहतर निर्माता व परिवर्तक बनता जाता है। सीखते हुए निर्माण व परिवर्तन की क्रमिक प्रक्रिया ही लोकतंत्र का मूलभाव होता है जो कि मनुष्य को मूलरूप से लोकतांत्रिक बनाता है।
देश, समाज व मनुष्य
मनुष्य के बिना परिवार, समाज व देश नहीं हो सकता; जहां कहीं भी मनुष्य होगा वहाँ परिवार, समाज व देश होगा ही होगा। मनुष्य परिवार, समाज व देश से बड़ा है, क्योंकि वह निर्माता है। देश व समाज की सत्ता, जीवन-मूल्य, नियम-कानून, रीति-रिवाज, खानपान, रहन-सहन, भाषा, लिपि, धर्म, धार्मिक कर्मकांड व संस्कृति सभी कुछ मनुष्य ही निर्मित, निर्धारित व परिवर्तित करता है। यही सहज सामाजिक तथ्य है; शेष राजनैतिक व धार्मिक सत्ताओं द्वारा अपने वर्तमान अस्तित्व के लिएतोड़मरोड़ कर उनके अपने निहित-स्वार्थों के लिएथोपी गयीं परिभाषायें व तर्क हैं।
मनुष्य देश का जनक, निर्माता, पोषक व उत्तमता तक पहुंचाने वाला होता है। देश मनुष्य की अपनी जीवंतता व उसके जीवन में व्याप्त परस्परता की जीवंतता से बनता है, इसलिएदेश राजनैतिक सीमाओं की निर्जीव-वस्तु न होकर, जीवंत-वास्तविकता होता है, जिसका निर्माता मनुष्य होता है। मनुष्य और देश का गूढ़ गतिशील, चारित्रिक व जीवंत-रचनात्मक संबंध होता है।
देश मूल रूप में मनुष्य की सामाजिकता की गतिशील-जीवंत-चारित्रिक रचनात्मकता है। इसलिएजैसा मनुष्य होगा वैसा ही देश होगा। मनुष्य जब चाहे तब देश का नाम, देश की परंपरायें, देश के कानून, देश का संविधान, देश का भूगोल, यहां तक कि देश का नाम तक बदल सकता है। परिवार, देश व समाज का निर्माण व विकास करना मनुष्य की जिम्मेदारी है।
जिस दिन भारत का मनुष्य यह यथार्थ समझ जायेगा कि देश मूलरूप से मनुष्यों से बनता है, न कि निर्जीव कानूनों, कानून की पुस्तकों, संविधानों, धार्मिक सत्ताओं या राजनैतिक सत्ताओं से; उस दिन भारत का मनुष्य अपने देश का पूरा का पूरा चरित्र एक झटके में बदल लेगा। यही वास्तविक व व्यापक परिवर्तन होगा। मानव निर्मित सत्ता तंत्रों को चलानें वाले वैयक्तिक-समूहों, दलगत-समूहों को बदलना वास्तविक व व्यापक परिवर्तन नहीं होता है।
मनुष्य देश का जनक, निर्माता, पोषक व उत्तमता तक पहुंचाने वाला होता है, इस यथार्थ को समझना व चारित्रिक रूप से जीना ही मनुष्य का लोकतांत्रिक होना है। मनुष्य की इस लोकतांत्रिकता के द्वारा ही उसका देश लोकतांत्रिक बनता है। किसी देश को उस देश के मनुष्य लोकतांत्रिक बनाते है, दूसरे शब्दों में लोकतांत्रिक मनुष्य ही देश को लोकतांत्रिक बनाता है, न कि देश का कानून, संविधान व सत्ता प्रणाली। सत्ता प्रणाली राजतंत्रीय होते हुएभी देश व मनुष्य लोकतांत्रिक हो सकता है।
नेतृत्व
मानव निर्मित तंत्रों की सत्ताओं के द्वारा व्यापक सामाजिक-परिवर्तन के लिए सामाजिक-नेतृत्व प्रस्फुटित नहीं होता; सामाजिक-नेतृत्व राजनैतिक, धार्मिक व आर्थिक सत्ताओं से इतर आम समाज की मौलिकता व गुणवत्ता से स्वतःस्फूर्त रूप से प्रस्फुटित होते हैं।
राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक व नौकरशाही तंत्रों में कोई भी सामाजिक-अवतार नहीं होता जो सामाजिक-अवतार जैसे दिखते हैं वे सभी किसी न प्रकार से व किसी न किसी स्तर पर प्रायोजित ही होते हैं। सामाजिक-अवतार तो आम समाज से अंकुरित व प्रस्फुटित होते है और मनुष्य निर्मित सत्ताओं के बिना रहते हैं। क्योंकि यदि सामाजिक-अवतार मनुष्य निर्मित सत्ताओं के द्वारा समाधान की शक्ति प्राप्त करते हैं, तो ऐसे सामाजिक-अवतार मनुष्य निर्मित उन्ही तंत्रों के ही अधीन हुये, जिन तंत्रों को परिवर्तित करने की आवश्यकता है। ऐसी परिस्थिति में तंत्रों की सत्ताओं के विरुद्ध जाने का साहस व दृष्टि हो ही नही सकती है। इसीलिए तंत्रों द्वारा प्रायोजित सामाजिक-अवतार कभी भी सामाजिक समाधान व परिवर्तन की ओर नहीं चल पाते है, ऐसे सामाजिक-अवतारों की उपलब्धियाँ भी प्रायोजित ही होती हैं।
भारतीय समाज में तो कुत्ता, बिल्ली, चूहा, सुअर, चिड़िया, सांप, कछुआ, गाय, बैल आदि जैसे गैर-मानव योनि जीव भी सामाजिक-अवतारों के रूप में प्रतिस्थापित किए गए हैं। इनको किसी भी प्रकार की मानव निर्मित सत्ताओं की ताकत नहीं मिली।
सामाजिक-अवतार यदि सत्ताधीश है तो वह कभी भी मानव समाज का वास्तविक सक्रिय आदर्श नहीं हो सकता। क्योंकि मानव निर्मित सत्ताओं की रूप-रेखा शुंडाकार-स्तंभ (पिरामिड) की तरह गढ़ी गईं है, जिनमें सबसे नीचे के आधार सबसे चौड़े और सबसे ऊपर की चोटियाँ सबसे नुकीली व सबसे कम चौड़ी होती हैं।
मानव निर्मित सत्ताओं में जो जितना ऊपर होगा वह उतना ही कम चौड़ा और अधिक नुकीला होगा और अपने से बहुत ही अधिक लोगों को दबाते हुए, निरंतर दबाए रहते हुए ही और ऊपर पहुँचता है। इसीलिए मानव निर्मित तंत्रों के सत्ताधीश लोग कभी भी आम मनुष्य के प्रति संवेदनशील नहीं हो पाते, व्यापक-समाधान की दृष्टि नही रख पाते हैं। यही कारक है जिनके कारण ऐसे लोग सामाजिक परिवर्तन व समाधान के सामाजिक-अवतार नहीं हो पाते हैं। सामाजिक-अवतार तो बहुत सहज, सामान्य व मानव निर्मित तंत्रों की सत्ताओं के बिना ही हो पाते हैं।
विश्व में अ-आयुधनिक सहज वैज्ञानिक-आविष्कार, सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक विकास, वैचारिक क्रांतियां आदि आम समाज से निकले आम मनुष्यों द्वारा मनुष्य-निर्मित धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि सत्ताओं का विरोध व प्रताड़ना झेलकर ही हुएहैं।
सामाजिक-नेतृत्व
सामाजिक-परिवर्तन व निर्माण कर पाने में सक्षम नेतृत्व का प्रस्फुटीकरण मौलिकता, गुणवत्ता, दूरदर्शिता, स्वतः स्फूर्तिता व बिना मिथकों के प्रयोजन से ही होता है। भारत जैसे बड़े देश व समाज में स्वतः स्फूर्त व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न सामाजिक-नेतृत्व का प्रस्फुटीकरण न हो पाने के प्रमुख कारण जाति-व्यवस्था, ईश्वरीय अवतारों व इन अवतारों का धरती पर ईश्वरीय व्यवस्था के प्रयोजन के कारण अवतरित होने की अवधारणाएं, साहित्यिक काव्यों/ग्रंथों को संपूर्ण ज्ञान व ईश्वरीय मानने की अवधारणएं, पोथियाँ, पौराणिक कथाएं व सामंतवादी मानसिकता आदि रहे हैं।
जाति-व्यवस्था के कारण सामाजिक-नेतृत्व का मूल-आधार पुरुषार्थ, कर्म व क्षमता आदि जैसे तत्व नहीं हो पाये। ब्राम्हण, क्षत्रिय व वैश्य जाति के लोगों के पास ही सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक नेतृत्व के जन्मजात अधिकार रहे। इसीलिए नेतृत्व की दावेदारी समाज की मौलिकता व गुणवत्ता की बजाए जन्म-आधारित जाति-व्यवस्था के कारण समाज के बहुत ही छोटे हिस्से में ही संकुचित व कुंठित रही। जन्मजात नेतृत्व की दावेदारी करने वाले समाज के इस हिस्से की अधिकतर ऊर्जा जाति-व्यवस्था को ईश्वरीय प्रयोजन सिद्ध करते रहने के लिए कपोल कल्पित ईश्वरीय गाथाएं, मिथक व कपोल कल्पित ईश्वरीय अवतार प्रायोजित करने व गढ़ने मे ही लगती रही। सामाजिक-नेतृत्व के सतही व अवैज्ञानिक होने, ढोंग व मिथकों आदि के द्वारा प्रायोजित होते रहने के कारण मौलिक, गुणवान व दृष्टिवान सामाजिक-नेतृत्व की संभावनाओं का भ्रूण भी नहीं पनप पाया।
सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग की अवधारणा; जन्मजात जाति-व्यवस्था; धर्म का क्षय होने पर धर्म की रक्षा के ईश्वर के द्वारा अवतार लेने की अवधारणा; मंत्रों व ईश्वरीय नाम के जाप द्वारा सुविधा/प्रतिष्ठा/समृद्धि आदि का मनचाहा वरदान या सिद्धि प्राप्त कर पाने की अवधारणा; सृष्टि के प्रारंभ में मनुष्य सत्य में था देवतुल्य था; आदि आदि जैसी विभिन्न अवैज्ञानिक अवधारणाओं ने भारतीय समाज मे सामाजिक-नेतृत्व की भ्रूण-संभावना को ही नष्ट कर दिया और भ्रूण-संभावना का यह नष्टीकरण परंपरा में हजारों वर्षों तक व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक मानसिकता आदि के विभिन्न स्तरों में गहरे अनुकूलन को प्रायोजित व स्थापित करने के साथ होता रहा।
ज्ञान व सामाजिक-नेतृत्व के लिए ब्राम्हण जाति में पैदा होकर पोथियाँ, पुराण, महाकाव्य, काव्य आदि रट कर उनको मुंह से बोलना व उनमें बताए हुए कर्मकांड आदि को करना ही पर्याप्त रहा। मिथकों के प्रायोजन व प्रायोजित मिथकों पर शाब्दिक व साहित्यिक विशेषज्ञता आदि के आधार पर सामाजिक-नेतृत्व का स्तर व प्रतिष्ठा निर्धारित होती रही। ब्राम्हण वर्ग की अधिकतर ऊर्जा इन्ही सबमें लगती रही और ऐसा करने को ही संस्कृति, संस्कार, पुरुषार्थ, ज्ञान, योग्यता आदि का नाम दे दिया गया।
भारत की सैकड़ों वर्षों की राजनैतिक गुलामी का सबसे प्रमुख कारण यही रहा कि क्षत्रिय वर्ग को दरबारी भाटों, चाटुकारों व मिथक-साहित्य विशेषज्ञों ने झूठी कहानियाँ व मिथक गढ़ कर ही जन्मजात पुरुषार्थी, निर्भय, रक्षक, शासक, राजनैतिक दूरदर्शिता व दृष्टिकोण आदि से संपन्न प्रायोजित कर दिया। गढ़े हुए मिथकों की पुष्टि करने के लिए ब्राम्हण वर्ग ने अनेकों पौराणिक कथाएं परंपरा में सत्य कथाओं के रूप में प्रायोजित करके, राजनैतिक सत्ता से अपना संतुलन-संबंध स्थापित करने के लिए क्षत्रिय वर्ग के द्वारा राजनैतिक सत्ता के भोग को ईश्वरीय प्रावधान के दायित्व का निर्वहन प्रायोजित कर दिया।
यदि पौराणिक कथाओं को संज्ञान में लिया जाए तो मानव समाज की समस्यायें समाधानित करने के लिए, मानव समाज को विकास की ओर गतिमान करने के लिए; ईश्वर खुद अवतार के रूप में आवश्यकता पड़ने पर बारंबार सामाजिक-नेतृत्व करने आता रहा। इसप्रकार सामाजिक-नेतृत्व मनुष्य की वास्तविक पुरुषार्थ, समझ की क्षमता व मानसिकता से अर्जित न होकर ईश्वरीय योजनाओं का प्रावधान के रूप में प्रायोजित व स्थापित रहा। इन मिथकों से भारतीय समाज में अकर्मण्यता प्रतिष्ठित हुई और मौलिक-गुणवत्ता की परंपरा में बारंबार भ्रूणहत्या होती रही।
समय के साथ अवतारों की बजाए अवतारों की गाथाएं गढ़ने वाले, अवतारों की चर्चा करने वाले, ग्रंथों/महाकाव्यों/काव्यों आदि को रटने वाले, धार्मिक अनुष्ठानों व कर्मकांडों आदि को करने वाले सामाजिक-नेतृत्व के रूप में प्रायोजित व स्थापित किए जाने लगे। ब्राम्हण व क्षत्रिय को सिर्फ जाति विशेष में पैदा होने के कारण ही ‘सामाजिक-नेतृत्व’ की मान्यता दी जाती रही। परिणामस्वरूप ‘सामाजिक-नेतृत्व’ भी जन्म के आधार पर प्रायोजित होता रहा।
भारत में ‘सामाजिक नेतृत्व’ लोगो में ‘आभामंडल-सत्ता’ स्थापित करने का और विभिन्न सत्ताओं द्वारा प्रायोजित होने का ही रहा है, इसीलिये ‘सामाजिक नेतृत्व’ और ‘सत्ताओं’ का आपस में बहुत गहरा व विश्वसनीय रिश्ता रहा है। यही कारण रहा कि भारत में शताब्दियों के बाद आज तक भी भारतीय समाज में स्वत: स्फूर्त ‘सामाजिक नेतृत्व’ नहीं आकार ले पाया।
चूंकि समाज में जाति-व्यवस्था के कारण स्वतः स्फूर्त, वास्तविक-गुणवान व मौलिक नेतृत्व विकसित होने की परंपरा नही बनने दी गई। इसीलिए समाज के लोग धूर्त, मक्कार, स्वार्थी, परजीवी, लंपट, भोगवादी, कामचोर और अवसरवादी आदि होते चले गए, क्योंकि जाति-व्यवस्था के निरंतर स्थापना-प्रयोजन के लिए यही आधारभूत मूल्य व तत्व होते हैं। जाति-व्यवस्था के कारण भारतीय समाज कभी देश व समाज के प्रति ईमानदार व प्रतिबद्ध नहीं हो पाया इसीलिए केवल व्यक्तिगत लिप्साओं, स्वार्थों, भोगों, विलासिताओं, बाजार के उपभोक्तवाद आधारित उपभोक्ता बने रहने की व्यक्तिगत आर्थिक सुरक्षा आदि आधारित स्वार्थ-केंद्रित महात्वाकांक्षाओं के लिए प्रयत्न करना ही जीवन का मायने प्रायोजित हो गया।
भारतीय समाज में सामाजिक-नेतृत्व की वास्तविकता समझने के लिए एक कहानी को ही समझना पर्याप्त है। महान गुरू के रूप में स्थापित द्रोणाचार्य ने अद्वितीय प्रतिभाशाली किशोर एकलव्य के दाहिने हाथ का अगूँठा केवल इसलिए कटवा दिया, क्योंकि एकलव्य आदिवासी था और द्रोणाचार्य अपने शिष्य जो कि एक बहुत बड़े राज्य का राजकुमार था, को महान धनुर्धारी के रूप में प्रायोजित करना चाहते थे। यह कहानी उस समाज की है जो गुरू-शिष्य परंपरा की संस्कृति की बात करता है और जिस समाज ने द्रोणाचार्य को महानतम गुरू के रूप में प्रायोजित कर रखा है। द्रोणाचार्य बहुत धनुर्धारी हो सकते थे लेकिन उन्होने सामाजिक गुरू होने के मूल्यों का पतन किया और भारतीय समाज को एकलव्य जैसे अद्वितीय धनुर्धारी से वंचित कर दिया, इसके बावजूद उनको भारतीय संस्कृति के महानतम गुरुओं में प्रायोजित कर रखा गया है। भारतीय समाज ने विभिन्न स्तरों व क्षेत्रों में अनगिणत एकलव्यों के अगूँठे काटे हैं, काश यदि इन एकलव्यों के अगूँठे नहीं काटे गए होते, काश विभिन्न स्तरों पर प्रायोजित लोग स्थापित नहीं किए गए होते तो आज भारत को वैदिक-काल की गाथाएं गाकर खुद को महान सिद्ध करने की आवश्यक्ता नहीं रहती, न ही भारत सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहता और न ही आज पिछलग्गू होता।
समाज का बहुत बड़ा हिस्सा शूद्र-वर्ण में रखा गया, जिसको जीवन के मौलिक अधिकार पशुओं के जैसे तक नहीं थे। शुद्र-वर्ण के अतिरिक्त जो वर्ण थे, उन वर्णों की भी लगभग आधी जनसंख्या अर्थात स्त्री को पशु और वस्तु की श्रेणी में रख दिया गया। इस प्रकार समाज का चार-पाँचवा जैसा बहुत बड़ा हिस्सा परंपरा में अपनी मौलिकता की भ्रूण-हत्या व अघोषित दासता का बर्बर-शोषण ही झेलता रहा। बचा-खुचा एक-पाँचवा हिस्सा परंपरागत प्रायोजन की कुंठित-सीमा में ही तथाकथित सामाजिक-नेतृत्व देता रहा।
प्रायोजित सामाजिक-नेतृत्व ने स्त्री जो कि जीवंत व चेतनशील मनुष्य है। उस स्त्री को वस्तु के रूप में प्रायोजित कर दिया, मनुष्य के रूप में स्त्री के अस्तित्व व चेतनशीलता का कोई वजूद ही नही रहने दिया गया। स्त्री को पुरुष की अघोषित संपत्ति बना दिया गया। स्त्री जिस पुरुष की संपत्ति है, उस पुरुष के अस्तित्व में ही अपने अस्तित्व को बिना सवाल विलीन करने व ऐसा करने में अपने जीवन का लक्ष्य व गौरवशीलता महसूसने के लिए परंपरा में अनुकूलित कर दिया गया।
जो संस्कृति स्त्री को देवी मानने का दावा करती है। उसी के समाज में स्त्री को प्रेम करने से वंचित कर दिया गया, स्त्री जिसे देवी कहा गया उसी को अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने के अधिकार नहीं रहे। यहाँ तक कि स्त्री को अपना पति तक चुनने का अधिकार नहीं रहा। जिस स्त्री को देवी कहा गया उसी को पर्दा में धकेल दिया गया, शिक्षा से वंचित रखा गया व संपत्ति में अधिकार नहीं दिए गए ताकि वह सदैव पुरुष की दास बनी रहे। स्थिति की भयावहयता की कल्पना इस बात से की जा सकती है कि स्त्री के माता-पिता ही स्त्री की हत्या माता के पेट में ही कर देते हैं, आज भी प्रतिवर्ष लाखों स्त्रियों की हत्या माता के गर्भ में ही खुद उनके ही माता-पिता द्वार कर दी जाती है। आज भी हजारों स्त्रियों की हत्या उनके ही माता-पिता व परिवार के द्वारा केवल इसलिए कर दी जाती है, क्योंकि स्त्री अपने माता-पिता व परिवार की इच्छा के विरुद्ध जाकर अपनी इच्छा से प्रेम करती है।
स्त्री जिसे देवी कहा गया वही स्त्री प्रेम करे तो वह चरित्रहीन व कुलटा, वही स्त्री पर्दा न करे तो वह चरित्रहीन व कुलटा, वही स्त्री पुरुष की उपस्थिति में खुलकर खिलखिलाकर हस ले तो वह चरित्रहीन व कुलटा। स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया लेकिन स्त्री के द्वारा पुरुष के अस्तित्व में ही अपना अस्तित्व देखने को ही उसका देवी होना प्रायोजित कर दिया गया। स्त्री के द्वारा परिश्रम से अर्जित संपत्ति का मालिक भी पुरुष और पुरुष के परिश्रम से अर्जित संपत्ति का मालिक भी पुरुष, फिर भी स्त्री पुरुष की अर्धांगिनी। स्त्री की कर्मशीलता को पुरुष के कारण होना मान लिया गया, स्त्री के द्वारा सामाजिक-नेतृत्व की संभावनाओं के भ्रूण की भी संभावना की स्थिति समाप्त।
यही कारण हैं कि बलात्कार होने पर या स्त्री के साथ दुर्व्यवहार होने पर, समाज स्त्री को ही दोषी ठहराता है। चूंकि स्त्री को मनुष्य माना ही नही गया, इसीलिए स्त्री के पहनावे या बोलचाल या व्यवहार के तरीके को बलात्कार का कारण ठहराया जाता है। इसको कुछ इस रूप में देखा जाए जैसे कि कोई वस्तु यदि रात में घर के बाहर पड़ी है तो कोई भी उसे चुराकर ले जा सकता है, उसी प्रकार स्त्री यदि रात में घर से बाहर है तो कोई भी उसके साथ बलात्कार कर सकता है। कोई महंगी वस्तु यदि छिपाकर न रखी जाए तो उस पर चोरों की नजर पड़ी रहेगी और वे चुराने का प्रयास करेंगे, वैसे ही स्त्री यदि छोटे कपड़े पहने है तो पुरुष स्त्री का स्त्रीत्व चुराएगा। एक समाज जो कि स्त्री को देवी मानता है, वही समाज स्त्री के बारे में सबकुछ बहुत ही अधिक वीभत्सपूर्ण घिनौनेपन और असंवेदनशीलता से तय करता है, जैसे कि स्त्री निर्जीव-वस्तु हो।
शाब्दिक व दार्शनिक तर्कशीलता के मानदंडों में अद्वितीय व विलक्षण संस्कृति, व्यवहारिक धरातल की वास्तविकता में बहुत ही अधिक अमानवीयता व खोखलाहट को ही पोषित करती व जीती रही। दर्शन को व्यवहारिक-जीवंतता के स्थान पर केवल शाब्दिक तर्कशीलता तक ही कुंठित किया जाता रहा। वास्तव में भारतीय समाज की सबसे बड़ी ऋणात्मकताएं ढोंग, अमानवीयता व असंवेदनशीलता हैं और ये तत्व ही मूलभूत कारण हैं कि भारतीय समाज बहुत ही वीभत्सता के स्तर तक आंतरिक रूप से सड़ा हुआ है, फिर भी समाज के लोग जो कि खुद अपने ही जीवन में खोखले होते हैं, किंतु रटे-रटाए दर्शन की कृतिम शाब्दिक-तार्किकता से अपने को व अपनी संस्कृति को जबरन महान सिद्ध करने में ही अपनी ऊर्जा लगाने में गौरव का अनुभव करते हैं। गीता को महान बताने वाला समाज, कर्म को ही उपेक्षित रखता आया है।
प्रकृति व ईश्वर को समझने का दावा करके प्रतिपल कर्मकांडों को रचने व महिमामंडित करने वाली संस्कृति वास्तव में केवल दर्शन की शाब्दिक व कृतिम तार्किकता की अव्यवहारिक विद्वत्ता तक ही कुंठित होकर रह गई। यदि भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था नहीं होती, स्त्री को मनुष्य माना गया होता और दर्शन को शाब्दिक तार्किकता व कृतिमता आदि से ऊपर उठकर समझने व जीने की चेष्टा की गई होती तो भारतीय समाज एक ढोंगी, कुंठित व पिछलग्गू होने की बजाए विश्व के वास्तविक सर्वश्रेष्ठ समाजो में से होता और वास्तव में ही विश्व को विकास व समृद्धि के सार्थक मायने समझाते हुए समाधानित कर रहा होता।
मौलिकता, गुणवत्ता व पुरुषार्थ से इतर अवसरवादिता, छद्म, ढोंग, मोहकता व आकर्षण आदि के प्रायोजन से देश, समाज व आने वाली पीढ़ियों की कीमत पर, पूरी निर्लज्जता और निरंकुशता के साथ भारतीय समाज में सामाजिक-नेतृत्व परंपरा में आजतक प्रायोजित किये जाये जाते हैं।
सामाजिक-नेतृत्व को परंपरा में विभिन्न सत्ता केंद्रों द्वारा प्रायोजित व स्थापित करते रहने के कारण भारतीय समाज अपने लिए ही क्रूरता की हद तक असंवेदनशील समाज के रूप में दृढ़ होता गया। कर्म व पुरुषार्थ से नहीं; बचपन से ही अपनी कमजोरियों को देखने, उनके कारणों को समझने और उनको दूर करने की चेष्टा करना सिखाए जाने की बजाए ढोंगो व सतही प्रायोजनो से दूसरों को निर्दयता व असंवेदनशीलता पूर्वक अपने से खराब साबित करके खुद को अच्छा साबित करने की तकनीक सिखाई जाती है। यह मानसिकता ही बचपन से ही जाने-अनजाने चाहे-अनचाहे समाज के मनुष्य मन में भ्रष्टाचार, असंवेदनशीलता, क्रूरता व सामंतवादिता के बीज को पोषित करती रहती है।
हम यदि खुद के जीवन को ध्यान से देखें तो पाएगें कि हमारा अपना पूरा का पूरा जीवन ही झूठ और दिखावा का पुलंदा है। हमें बचपन से ही दिखावेपन की पुनुरुक्ति के लिए इस तरह का अभ्यास करवाया जाता है कि हम खुद अपने आपको ही भूल जाते हैं और अपने ढोंग, खोखलेपन, निर्दयता, असंवेदनशीलता, अवैज्ञानिक-तर्कशीलता व अतथ्यात्मकता आदि को ही अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकता और सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि व उद्देश्य मानने लगते हैं।
हमें पता ही नहीं चलता और हम सड़ने लगते हैं। जब हमे अपने सड़ने की बदबू आती है, हम बदबू का कारण बाहर खोजते हैं। हम बदबू का कारण बाहर इसलिए नही खोजते क्योंकि हमे बदबू का कारण वास्तव में खोजना होता है। ढोंगो और प्रायोजन के आदी हम वास्तव में अपने से अधिक बदबूदार को खोजना चाहते हैं ताकि खुद को उसकी तुलना में खुशबूदार साबित करके खुद को बेहतर प्रायोजित कर खुद को महान मान लें। यही कारण है कि हम दिन-प्रतिदिन और अधिक सड़ते जाते हैं लेकिन फिर भी दूसरों की तुलना में खुद को खुशबूदार मानते हैं।
यह हमारी स्वयं के प्रति घोर निर्दयता व असंवेदनशीलता ही है, कि हम वास्तविक खुशबू में जीने के प्रयास करने की बजाए अपनी सड़ाँध व बदबू को ही खुशबू के रूप में प्रायोजित करने मे अपनी ऊर्जाएं लगाते हैं। हम पूरा जीवन नशे व बेहोशी में जीते हैं, और बेहोशी में जीवन जीने को हम जीवन की व्यावहारिकता कहते व साबित करते हैं; जबकि वास्तव में यह हमारा अपने खुद के प्रति ही और अधिक असंवेदनशील होना ही है।
हम स्वयं को विकसित करने के लिये, स्वयं को बेहतर बनाने के लिए कर्म, प्रयास या चेष्टा नही करना चाहते हैं। स्व-निर्माण की प्रसव पीड़ा नही झेलना चाहते हैं। इसीलिए हम अपने जीवन के लिए , परिवार के लिए , समाज के लिए व देश के लिए ऐसे सामाजिक-नेतृत्व प्रायोजित करते हैं; जो हमारे जैसे ही हों। सामाजिक-नेतृत्व छोड़िए हमने तो अपने ईश्वर भी अपने ही जैसे बना रखे हैं।
सामाजिक-नेतृत्व का प्रस्फुटीकरण वास्तविक कर्म से हुआ करता है। ढोंग व सतहीपन से युक्त विभिन्न स्तरों पर अनुकूलताओं के प्रयोजन से नहीं। भारत में पारंपरिक रूप से सामाजिक-नेतृत्व समाज के बेहतरी के लिए किए गए पुरुषार्थ, कर्म, सक्रिय चिंतन, जीवंत कर्म-अनुभव आदि मूल्यों के आधार पर नही स्वीकृत किए गए हैं। परिणामस्वरूप भारतीय समाज ज्ञान, विज्ञान, सामाजिक विकास व वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि में बहुत ही पीछे रह गया शताब्दियों तक राजनैतिक गुलाम रहा और आज भी मानसिक गुलाम है।
भारत सामाजिक रूप से बहुत अधिक विद्रूपताओं और विविधताओं का देश है। इसलिए भारत का राष्ट्रीय सामाजिक-नेतृत्व वही कर सकता है जो कि भारत को भारत की विद्रूपता और विविधताओं के साथ स्वीकारे और फिर सबको साथ लेकर चलते हुए बढ़े। सामाजिक नेतृत्व का सामाजिक सरोकारों से बहुत गहरा व स्पष्ट संबंध होता है, बिना सामाजिक सरोकारों को समझे व सामाजिक संबंधों के कोई भी सामाजिक नेतृत्व नहीं हो सकता है। भारतीय समाज को शताब्दियों के अनुकूलन से बाहर आकर अपनी वास्तविक स्थिति, गति को स्वीकारते हुए विभिन्न स्तरों पर वास्तविक परिवर्तकों को “सामाजिक-नेतृत्व” के रूप मे स्थापित करने की आवश्यकता है।
यदि भारत को वास्तव में आगे बढ़ना है तो पूरी कठोरता व इच्छाशक्ति के साथ बिना लाग-लपेट के सामाजिक-नेतृत्व के प्रायोजनों की परंपरा व अनुकूलता से दृढ़तापूर्वक बाहर निकलकर वास्तविक स्वतः स्फूर्त सामाजिक-नेतृत्व के प्रस्फुटीकरण का बीजारोपण करना होगा। इसके अतिरिक्त कोई विकल्प भी नहीं। इस किताब में यायावर-लेखक सामाजिक-नेतृत्व के सामाजिक-आविष्कारों की बात करता है।
पुस्तक में खंड
यह पुस्तक ऐसे मनुष्यों को समर्पित है और चर्चा करती है, जो मानव की चेतनशीलता, समाज, देश व प्रकृति के निर्माण, पोषण व संवर्धन की ओर ले जाने के लिएविचार करते हैं, प्रयास करते हैं, कर्म करते हैं।
लेखक का विश्वास है कि समाज की गति में प्रत्येक मनुष्य का योगदान होता है। इसलिएयह पुस्तक बिना पूर्वाग्रह के उद्योगपति, नौकरशाह, किसान, सामाजिक-संस्था आदि के द्वारा आम-मनुष्य के तौर पर किएगएकार्यों व प्रयासों की चर्चा करती है; जिनने देश व समाज को उत्तमता की ओर बढ़ने की दिशा दी, प्रेरित किया, गति दी।
देवतुल्य-परिवर्तक खंड, उन सामाजिक सोच व दृष्टि वाले लोगों व स्थानीय समुदायों की चर्चा करता है; जिनके कामों व प्रयासों से समाज को महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त हुईं, हो रही हैं। लोगो के जीवन में आर्थिक, सामाजिक व चेतनागत परिवर्तन और विकास हुआ है, हो रहा है। देश में ऐसे लोग भी हैं जिन्होनें बड़े काम किएहैं और लेखक उन तक नहीं पहुंच पाया है, सभी तक पहुंच पाना और सबके बारे में चर्चा कर पाना व्यवहारिक नहीं है; इसलिएलेखक ने केवल उन कामों की चर्चा की है जिनको लेखक ने या तो निकट से देखा व समझा है या सक्रिय रूप से स्वयं भी भागीदार रहा है।
"पानी" भारत का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे खतरनाक अवस्था में पहुंचा हुआ मुद्दा है। “पानी” को समझे व समाधानित किए बिना, सामाजिक-परिवर्तन और देश व समाज के लोगों का जीवन स्तर सुधारने की बात बेमानी है। किसी ने अपने जीवन में यदि "एक दिन" भी वास्तव में बिना किसी छुपी हुयी राजनैतिक-सत्ता के लिप्सा के समाज में "उत्त्पादक-रचनात्मक" के काम किए हैं; तो जो बात सबसे पहले मालूम पड़ती है वह यह, कि भारत में "पानी" सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा है और सबसे अधिक खतरनाक स्तर में है।
देश व समाज के लोग "मुद्रा/विकास/इमानदारी/चकाचौंध/सामाजिक-परिवर्तन/राजनैतिक-सत्ताओं" आदि के बिना भी सहजता से रह सकते हैं किंतु बिना "पानी" के नहीं रह सकते है। राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक आदि सत्ताओं के विकल्प हैं, किंतु जीवन के लिए "पानी" का कोई विकल्प नहीं है।
“कृषि” मनुष्य को भोजन व कपड़ा उपलब्ध कराती है, भोजन जीवन के लिए मूलभूत आवश्यकता है। कृषि, पानी, पशु, जंगल, वायु आदि जीवन, स्वास्थ्य, प्राकृतिक वातावरण आदि के मूलाधार हैं और परस्परता में व्यवस्थित रहने के मूल चरित्र के हैं।
यह खंड भारत के लोग, समाज व देश के आर्थिक सामाजिक विकास व संवर्धन के लिए कृषि, पानी, जंगल, पशु, ऊर्जा, सामाजिकता व पर्यावरण आदि मुद्दों से संबंधित जीवंत व सक्रिय कार्यों की चर्चा करता है। यायावर इन लोगों को ही समाज व देश का वास्तविक देवतुल्य-परिवर्तक स्वीकारता है।
देवतुल्य-समाजबंधु खंड, उन सामाजिक सोच व दृष्टि वाले लोगों व स्थानीय समुदायों की चर्चा करता है; जो कि अपने स्तर से समाज के विकास के लिए, सामाजिक समाधान के लिए सोचते व प्रयास करते रहते हैं, भले ही उनके कार्यों की व्यापक उपलब्धियाँ नहीं हों।
चलते-चलते खंड, यायावरी करते हुए प्राप्त अनुभवों में से कुछ की चर्चा करता है।
शख्सियत स्मृतियाँ खंड, शख्सियतों से चर्चा करने या संवाद करने या साथ मिलकर कार्य करने से प्राप्त अनुभवों मे से कुछ की चर्चा करता है।
यायावर के अनुप्रयोग खंड, यायावर ने अपने जीवन में जो कार्य व प्रयास किए उनकी चर्चा करता है। शिक्षा, ग्रामीण विकास, सामाजिक चेतनशीलता, पानी, कृषि, स्वास्थ्य, जन-संवाद आदि के उन धरातलीय अनुप्रयोगों की भी चर्चा करता है, यायावर जिनका संस्थापक या सह-संस्थापक रहा है या महत्वपूर्ण भूमिका में रहा है।
कॉफी की चुस्कियोँ के साथ सामाजिक अनुकूलन पर बेबाक-यायावर खंड, सामाजिक अनुकूलताओं पर कॉफी की चुस्कियों के साथ मित्र के साथ संवाद व नाटक लेखों के माध्यम से मानव-निर्मित-ईश्वर, युग, स्वर्ग आदि अवधारणाओं और जाति-व्यवस्था जैसे सामाजिक विषयों, मुद्दों व कुरीतियों आदि की जटिलता को सहज करते हुएसामाजिक समाधान की दृष्टि को संवर्धित करने व अ-अनुकूलता की ओर गति करने को प्रेरित करने पर आधारित संवाद करता है।
यायावर की आत्मकथा खंड, यायावर का परिचय, जीवन-गति व व्यक्तित्व-विकास पर आधारित है। यायावर के जीवन के उन पहलुओं को छूता है जिनने उसे यायावर, चिंतक, कर्मशील व संवेदनशील मनुष्य के रूप में संवर्धित किया।
यायावर की परिकल्पनाएं खंड, यायावर के उन सपनों की चर्चा करता है, जो यायावर को यायावरी, चिंतन, कर्मशीलता व जीवंत अनुभवों के लिएनिरंतर श्रोतों के रूप में जीवनी ऊर्जा देते रहते हैं।
पुस्तक आर्थिक-समृद्धि, सामाजिक-समृद्धि, पर्यावरण-समृद्धि, चेतनशील-स्वतंत्रता आदि से संबंधित अद्वितीय जमीनी कार्यों व प्रयासों तथा धरातलीय उपलब्धियों की बात जीवंत-प्रमाणिकता के साथ करती है। यायावर-लेखक का मानना है कि यदि मनुष्य पशुवत नही है, तो गौरवशीलता व चेतनशीलता के साथ ही जीना चाहता है और मनुष्य ही परिवार, समाज, राष्ट्र व संस्कृति का निर्माता, पोषक व संवर्धक है। अपेक्षा है कि इस पुस्तक को धार्मिक-भावुकता, वैचारिक-अनुकूलता, सामाजिक-अनुकूलता, धार्मिक-अनुकूलता, मान्यतायें /लोभ /लिप्सा /स्वार्थ आदि की भावुकता व प्रतिक्रिया आदि से परे गंभीरता, विचारशीलता व सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ पढ़ने व तथ्यात्मक-तार्कितता के साथ मूल्यांकन करते हुए समझने का प्रयास किया जाएगा।